Saturday, May 21, 2011

पश्चिम बंगालः उबड़-खाबड़ ट्रैक पर हर्डल रेस

ममता बनर्जी प्रचंड बहुमत और जनता की अपेक्षाओं के घोड़े पर सवार होकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। फिर अपेक्षाएं हों भी क्यों न, उन्होंने पिछले 34 सालों से एक ही मूड में सोए हुए बंगाली मानुष को जगाया है। तीन दशक से भी ज्यादा समय तक पश्चिम बंगाल में रेड लाइट जली रही और विकास का पहिया थमा रहा। वैसे भी रेड लाइट हो तो आपको रुकना ही पड़ता है वरना चालान घर पहुंचने का डर रहता है। लेकिन इस राज्य में ये रेड लाइट इतने ज्यादा समय तक रह गई कि जिन्दगियां ही ठप्प हो गईं। अब ग्रीन लाइट हुई है तो दीदी को विकास की रेस में गुजरात जैसे राज्यों से टक्कर लेनी है। ममता की मजबूरी तो यह है कि इतने सालों में वह ट्रैक कछ ज्यादा ही उबड़-खाबड़ हो गया है, जिस पर दीदी तो दौड़ लगानी है ऊपर से लेफ्ट के हर्डल तो सामने आएंगे ही।

तो जनाब मामला यह है कि ममता को उबड़-खाबड़ ट्रैक पर हर्डल रेस दौड़नी है। बात सिर्फ इतनी ही होती तो और थी, उन्हें तो विकास की रेस में सरपट दौड़ रहे गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों को चुनौती भी देनी है। इन्हें चुनौती नहीं देंगी तो जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी और ममता का कैरेक्टर भी ऐसा नहीं है कि वे बिना लड़े हार मान जाएं। तथ्य तो यह हैं कि पश्चिम बंगाल दीवालिया होने के कगार पर है और आशंका जताई जा रही है कि ममता का कार्यकाल खत्म होने तक ऐसा हो भी सकता है। सिर्फ पिछले एक साल में ही रिजर्व बैंक से 62 बार ओवर ड्राफ्ट और केन्द्र सरकार से 109 बार आकस्मिक मदद ले चुका है बंगाल। यही नहीं जनाब, बंगाल पर करीब दो लाख करोड़ का कर्ज भी है और यह देश का सबसे ज्यादा कर्जदार राज्य है। यह कर्ज राज्य के घरेलू उत्पाद (GDP) की तुलना में 41 प्रतिशत है। राज्य की कमाई का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा तो ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। घरेलू उत्पाद व राजस्व घाटे का अनुपात इतना भयानक है कि वित्त आयोग को लग रहा है कि तीन साल बाद बंगाल कर्ज चुकाने लायक भी नहीं बचेगा और इस तरह राज्य दीवालिया हो जाएगा। ये सब हर्डल पार करके ममता बंगाल को दौड़ा भले ही न पाएं, अगर चलने लायक भी बना दें तो उनकी वाह वाह निश्चित है।

आर्थिक उदारीकरण से पहले भी बंगाल में कई उद्योग थे जिन पर उसे गर्व होता था, लेकिन बार-बार उठ खड़े होते लाल झंडों ने न सिर्फ इन्हें ठंडा किया बल्कि यहां आने की तैयारी कर रहे उद्योगों के जोश पर भी पानी डालने का काम किया। न उद्योग, न आम आदमी का विकास से कोई नाता और न ही इन्फ्रास्ट्रक्चर, इन सब से जर्जर हो चुके ट्रैक पर ममता दौड़ पाएंगी? खुदा उनकी मदद करे। वैसे पिछले 34 सालों में वाम सरकार ने राज्य की जनता को जिस तरह से सब्सिडी की आदत लगाई है उससे पार पाना मुश्किल होगा। यही ममता के लिए सबसे बड़ा हर्डल भी होने वाला है। इसके अलावा हर्डल और भी कई हैं। खुद ममता ने भी अपने सामने एक हर्डल खड़ा किया हुआ है, सिंगूर से टाटा को भगाने के बाद अब वे कैसे उद्योगों को बंगाल आने पर मनाती हैं यह देखने वाली बात होगी। अगर ममता ने यह हर्डल पार कर लिया तो फिर अगले चुनाव में उनके सामने चमचमाता हुआ बिना गड्ढों का ट्रैक भी होगा और हर्डल भी ऐसे होंगे कि उनसे पार पाना बहुत आसान होगा।

एक रोचक तथ्य है भी है कि सिंगापुर के पहले राष्ट्रपति युसोफ बिन इशाक ने 1965 में जब देश आजाद हुआ तो सिंगापुर को कोलकाता की तर्ज पर बसाने का सपना देखा था। इस तथ्य तो देने का मकसद सिर्फ यही है कि कोलकाता के पास बेमिसाल औद्योगिक धरोहर थी और राज्य की राजधानी होने के नाते पूरे राज्य पर इसका फर्क जरूर पड़ता। युसोफ ने जो सपना देखा था उसकी बानगी यह थी कि भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने अंतिम सालों में देश की राजधानी दिल्ली को सिंगापुर जैसा रूप देने की बात कही और राजधानी में इसकी कुछ मिसालें आज भी देखने को मिलती हैं। सिंगापुर विकास के पहिए पर सरपट दौड़ता रहा और पश्चिम बंगाल अपने ही रास्ते में गड्ढ़े खोदता रहा, अब इन गड्ढ़ों को पार करके तमाम हर्डलों के साथ ममता को राज्य में ऐसी ममता बरसानी है कि भूत की तरह पश्चिम बंगाल का भविष्य भी उज्वल नजर आए।

क्या इतना आसान है पाकिस्तान पर हमला करना?

जी हां! ये सवाल अब बार-बार उठ रहा है कि भारत क्यों नहीं पाकिस्तान पर हमला कर देता है। दाऊद इब्राहिम के अलावा आतंकवादी गुट लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद आदि का खात्मा तो हम जाने कब से चाहते हैं। पाकिस्तान की राजधानी के नजदीक ही छुपे बैठे दुनिया के सबसे खूंखार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के खिलाफ अमेरिका की कार्रवाई के बाद तो ये सवाल और भी मुखर हो गए हैं। हर कोई पाकिस्तान को पाकिस्तान में जाकर ही ठोकने-बजाने की बात करने लगा है। अमेरिका ने लादेन को मारने के लिए जो किया वैसा करने की क्षमता हमारे अंदर भी है और हम तैयार भी हैं- ये बात किसी आम आदमी ने नहीं बल्कि सेना अध्यक्ष वीके सिंह ने कही। मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी तो पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने पर आमादा है। उसका बस चले तो वह आज के आज पाकिस्तान पर दस-बीस बम गिराकर उसका काम तमाम कर दे।

वैसे बीजेपी का अभी बस भले ही न चले, लेकिन जब वो सत्ता में थे तो उन्होंने ‘बस’ जरूर चलाई थी। 19 फरवरी, 1999 को बीजेपी के शासन में ही दिल्ली और लाहौर के बीच बस सेवा शुरू हुई थी। खुद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस बस में बैठकर गए और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अटारी बॉर्डर पर उनका स्वागत किया। इसके बाद मई-जून में पाकिस्तान ने कारगिल में क्या किया, इससे तो सब वाकिफ हैं। पीठ पर छूरा खाने के बावजूद पाकिस्तान के लिए बस जारी रही, देश की जनता तो तभी पाकिस्तान को बे’बस’ और बेदम करना चाहती थी लेकिन सरकार ने घुसपैठियों को भगाकर अपनी पीठ थपथपा ली। इस बस पर ब्रेक तब लगा जब 13 दिसंबर 2001 को हमारे लोकतंत्र पर जोरदार तमाचा मारा गया और लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद भवन पर आतंकवादी हमला हुआ। अब आर-पार की लड़ाई का वक्त आ गया है, हम इसे नहीं भूलेंगे, पाकिस्तान को सबक सिखाना ही होगा और न जाने क्या-क्या भड़काऊ बातें करने के बाद सरकार का दम फूल गया और शांत बैठ गई।

2008 में मुंबई हमले और अब पाकिस्तानी में अमेरिका की कार्रवाई के बाद बीजेपी पाकिस्तान का खेल खत्म कर देना चाहती है। भले ही अपने राज में कारगिल जैसी लड़ाई और संसद पर हमले के वक्त वे कुछ नहीं कर पाए हों। सरकार चुप बैठी है और उस समय की सरकार भी चुप थी तो इसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो जरूर होगा। जैसा कि पूर्व एयर मार्शल कपिल काक का कहना है ‘ऐसी कार्रवाई सिर्फ ताकत का दिखावा करने के लिए नहीं होनी चाहिए। जब तक हम उद्देश्य चिन्हित नहीं करते, हमें ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए।’ बात सिर्फ उद्देश्य चिन्हित करने तक ही होती तो बात और थी, यहां तो आपको उसके परिणामों के बारे में सोचना पड़ेगा। अगर आज आप पाकिस्तान पर हमला करते हैं तो आपको इस इस बात के लिए तो तैयार रहना ही पड़ेगा कि वो चुप नहीं बैठेगा। पाकिस्तान एक परमाणु सम्पन्न देश है और हमारे दूसरी तरफ ताक पर बैठा चीन हमारे इस परंपरागत दुश्मन का अच्छा इस्तेमाल करना भी जानता है।

ऐसी कोई भी कार्रवाई हुई तो पाकिस्तान के निशाने पर सबसे पहले दिल्ली, मुंबई, बैंगलूरु, अमृतसर, चंडीगढ़ और ऐसे ही बड़े-बड़े शहर होंगे। अगर आप इन शहरों की कीमत पर पाकिस्तान में छुपे बैठे आतंकवादियों की जड़ उखाड़ना चाहें तो आप उस पर हमला कर सकते हैं, लेकिन इतनी बड़ी कीमत चुकाने को कोई भी सरकार तैयार नहीं हो सकती। रही बात अमेरिका की कार्रवाई की तो, पहली बात ताकत के मामले में वो हमसे कहीं आगे है और दूसरी बात यह कि उसने पाकिस्तान को तमाचा जरूर मारा है लेकिन उससे पहले उसके मुंह में ढ़ेर सारा पैसा ठूंसा है, ताकि उसकी आवाज ही न निकल पाए। तीसरा बड़ा फायदा अमेरिका को यह है कि वह पाकिस्तान का पड़ोसी देश नहीं है। हजारों मील की दूरी पर बसे अमेरिका तक पाकिस्तान की कोई मिसाइल पहुंचे इससे पहले वह पाकिस्तान को 12वीं सदी में पहुंचा देगा। हमारे साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि हम दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन तो बना सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं चुन सकते। उसकी अदनी सी मिसाइल, मिसाइल छोड़ो छर्रे वाली बंदूक का छर्रा भी भारत पहुंच सकता है इसलिए पाकिस्तान पर हमला करने का विचार तब तक सही नहीं लगता जब तक आप अपने कुछ चमचमाते हुए हिस्सों को खोने को तैयार न हों।