Monday, July 26, 2010

कितने बाप हैं तेरे

'कितने बाप हैं तेरे' अरे नहीं, ये सवाल मेरा नहीं उस ड्राइवर का था, जो हमें टाइगर फॉल दिखाने के लिए ले गया था। सवाल सुनकर मैंने सोचा अक्‍सर लोग बच्‍चों को छेड़ने के लिए ऐसा सवाल कर देते हैं, सो उसने भी बस यूं ही पूछ लिया होगा। लेकिन उस छोटे से नन्‍हें गाइड ने जवाब दिया दो बाप। मुझे कुछ अजीब सा लगा और मन में एक सवाल भी अंकुरित हो गया, इसलिए ड्राइवर से पूछ ही लिया इसका क्‍या मतलब हुआ। तो ड्राइवर ने बताया कि पहले यहां पांचाली प्रथा हुआ करती थी, अब विकास से प्रथा जाती रही। लेकिन अब भी कुछ पिछड़े इलाकों में यह प्रथा जिंदा है। (पांचाली प्रथा से उसका मतलब उस प्रथा से था जिसमें एक व्‍यक्ति एक औरत से विवाह करे तो उसके सभी भाईयों का विवाह भी उसी औरत से हो जाता था। यह प्रथा ठीक उसी तरह है, जैसे आध्‍यात्मिक महाग्रंथ महाभारत में पाचों पांडव द्रौपदी (पांचाली) के पति थे)।


खैर यह तो बात थी टाइगर फॉल से वापस लौटने पर हमारे साथ रहे छोटे से गाइड चेतन की, जिसे मैं छोटा चेतन कह कर पुकार रहा था। हिन्‍दुस्‍तान लखनऊ के एक्‍जक्‍यूटिव एडिटर श्री नवीन जोशी जी का blogs.livehindustan.com पर सुन किस्‍सा सारंगी नाम के ब्‍लॉग में कभी चकराता जाकर प्राण पाइए पढ़कर मैने मन बनया कि हनीमून के लिए चकराता ही जाना चाहिए। फिर क्‍या था हम जा पहुंचे हनीमून के लिए चकराता। आप कहीं जाएं और वहां कुछ अनजाना सा अनदेखा सा और ऐसा कुछ हो जाए जिसके लिए आप तैयार न हों तो वहां जाने का मजा दो गुना हो जाता है, भले ही शुरु‍आत में कुछ परेशानी जरूर आती है। अभी ट्रेन हरिद्वार पहुंची थी और मैंने चकराता में उन महाशय को कॉल किया जिन्‍होंने हमारे रहने की व्‍यवस्‍था करनी थी। तभी महाशय ने बताया कि रहने की व्‍यवस्‍था तो नहीं हो पाई है, मैं कुछ व्‍यवस्‍था करता हूं तब तक आप देहरादून में रुकिए और सहश्रधारा देख आइए। मैंने अपनी पत्‍नी को बताया तो वो आग बबूला हो गई, लेकिन फिर मान भी गई और हम सहश्रधारा भी देख आए। देहरादून से आधे घंटे की दूरी पर सहश्रधारा में पाकृतिक गंधक जलश्रोत बह रहा है। खैर चकराता में व्‍यवस्‍था तो नहीं हुई और हमें अपने एक पत्रकार दोस्‍त की मदद से देहरादून में ही एक होटल में ठहरना पड़ा। अगले दिन उन्‍हीं चकराता वाले भाईसाहब से बात की तो उन्‍होंने चकराता में जगह होने से तो साफ मना किया लेकिन देहरादून से लगभग 40 किमी दूर विकासनगर में ठहरने की व्‍यवस्‍था जरूर कर दी। यहां से चकराता मात्र 55 किमी रह जाता है। विकासनगर में रात बिताकर अगले दिन एक प्राइवेट टैक्‍सी करके हम चकराता के लिए निकले और सच में यहां जाकर प्राण पा लिए। इतना सुंदर, ठंडा और प्‍यारा मौसम की बस जी खुश हो गया और मन ही मन कई बार नवीन जी को धन्‍यवाद दिया। चकराता में कुछ देर रुक कर ठंडे मौसम में मैगी खाई तो ऐसे लगा जैसे इससे पहले मैगी कभी इतनी टेस्‍टी थी ही नहीं। सच में यहां मैगी का स्‍वाद ही कुछ और था, शायद ये यहां के मौसम और बांज व देवदार की जड़ों से रिस रहे पानी का कमाल था।

चकराता से करीब 17 किमी की दूरी पर है टाइगर फॉल इतना सुंदर कि यहां से आने का ही मन न करे। सड़क मार्ग से 17 किमी जाने के बाद करीब डेढ़ किमी पैदल खड़ी ढ़लान पर उतरना था। गाड़ी रुकती इससे पहले ही एक छोटा सा करीब 9 साल का लड़का गाड़ी के पास आ गया और बोला मैं आपको टाइगर फॉल दिखाऊंगा और आपका सामान भी उठाऊंगा। इसके साथ ही उसने बताया कि किसी और को अपने साथ मत चलने दीजिएगा, मैंने बैग तो उसे नहीं पकड़ाया और हम उसके पीछे-पीछे चल दिए। वह रास्‍ते भर याद दिलाता रहा कि उसे 50 रुपए से लेकर 1000 रुपए तक गाइड के रूप में मिले हैं और वह स्‍कूल से आकर व छुट्टी के दिन यह काम करता है। टाइगर फॉल तो सच में वैसा ही है जैसे नवीन जी ने अपने लेख में कहा है, देखकर यहां से हटने का मन नहीं किया। हम दोनों ने यहां खूब मस्‍ती की और तन से लेकर मन तक तर होने के बाद जब ठंड तेज लगने लगी तो कपड़े बदले और धूप में आ गए। वहीं पास में एक बूढ़ा व्‍यक्ति झाड़ फूंस जलाकर चाय बना रहा था, एक चाय मैंने भी मंगवा ली। वैसे वह चाय ऐसी तो नहीं थी कि उसके बारे में कसीदे पढ़े जाएं लेकिन ठंड में अच्‍छी लग रही थी। डेढ़ किमी की चढ़ाई बैग लेकर चढ़ने की हिम्‍मत मेरी तो नहीं ही हुई, नई नवेली मेरी दुल्‍हन तो पहली बार पहाड़ गई थी। इसलिए बैग की जिम्‍मेदारी छोटा चेतन ने संभाल ली। सड़क पर पहुंचकर मैंने उसे 100 रुपए दिए लेकिन वह गाड़ी के पास ही खड़ा रहा, तभी ड्राइवर ने उससे पूछा कितने बाप हैं तेरे और उसने जवाब दिया दो। खैर चेतन से विदा लेकर हम वहां से चल दिए और डेढ़ महीने बाद भी छोटा चेतन याद आता है और टाइगर फॉल की याद फिर से तन मन को तरोताजा कर देती है।

एक प्‍यारा बहाना - बस यूं ही कुछ भी लिख दिया

बस यूं ही कुछ दिनों तक आपसे दूर हो गया था इसलिए 'बस यूं ही' पर आपसे मुलाकात नहीं हो पा रही थी। शादी और फिर हनीमून के बाद मैं एक बार फिर से आपसे मुखातिब हूं। वैसे हनीमून से आए हुए एक माह से ज्‍यादा का वक्‍त बीत चुका है, लेकिन ऑफिस से घर पहुंचकर कंप्‍यूटर के सामने बैठने का मन ही नहीं करता और ऑफिस में अपना ब्‍लॉग लिखना लगभग नामुमकिन है। खैर बहानेबाजी बहुत हो गई, लो जी आ गया हूं फिर से झेलो मुझे...................