Monday, March 29, 2010

एक दफा जो तेरा नाम लिया तो सौ फसाने हुए

एक दफा जो तेरा नाम लिया तो सौ फसाने हुए
सब के सब हमारे जीने के बहाने हुए।
पहली बार जो तेरा नाम लिया तो हो गए बदनाम
जो सोचा, तुझे भूल जाऊं तो इल्जाम लगा और हो गए बेईमान
वैसे तो तुझे भूलाना भी नहीं है इतना आसान
पर करुं कैसे याद, दुनिया कर देती है बदनाम
सपनों में भी होते हैं तेरे ही कदमों के निशान
सच तुझे भूलाना नहीं बिल्कुल भी आसान
एक दफा जो तुझे याद किया तो सौ फसाने हुए
सब के सब हमारे जीने के बहाने हुए।

एक दफा जो तेरा नाम लिया तो सौ फसाने हुए

एक दफा जो तेरा नाम लिया तो सौ फसाने हुए
सब के सब हमारे जीने के बहाने हुए।
पहली बार जो तेरा नाम लिया तो हो गए बदनाम
जो सोचा, तुझे भूल जाऊं तो इल्जाम लगा और हो गए बेईमान
वैसे तो तुझे भूलाना भी नहीं है इतना आसान
पर करुं कैसे याद, दुनिया कर देती है बदनाम
सपनों में भी होते हैं तेरे ही कदमों के निशान
सच तुझे भूलाना नहीं बिल्कुल भी आसान
एक दफा जो तुझे याद किया तो सौ फसाने हुए
सब के सब हमारे जीने के बहाने हुए।

Tuesday, March 16, 2010

कोई इस्‍लामिक तस्‍वीर क्‍यों नहीं बनाई एमएफ हुसैन ने

पिछले दिनों भारत के पिकासो कहे जाने वाले मकबूल फिदा हुसैन से संबंधित खबरें जोरों पर रही। पहले खबर आई कि अब वे भारत के नागरिक नहीं रहेंगे और कतर ने उन्‍हें देश की नागरिकता स्‍वीकार करने का प्रस्‍ताव दिया है। इसके दो-चार दिन बाद ही खबर आई कि हुसैन ने कतर की नागरिकता स्‍वीकार कर ली है और वहीं भारतीय दूतावास में भारत का पासपोर्ट जमा करा दिया है। एक 95 वर्षीय व्‍यक्ति को इस तरह से अपना देश छोड़कर दूसरे देश की नागरिकता हासिल करनी पडे तो यह दुख की बात तो है। लेकिन सुनने में यह खबर जितनी करुण दिखती है माफ कीजिए मुझे उतनी नहीं लगती।

यह तो आप जानते ही हैं कि हिन्‍दू देवियों के विवादास्‍पद नग्‍न चित्र बनाने के बाद भारत में दर्ज हुए कई मुकदमों के कारण करीब चार साल से स्‍वेच्‍छा से विदेश में रह रहे एम़एफ़ हुसैन के लिए यह प्रस्ताव स्वीकार करना एक मजबूरी भी था। उनके बेटे ओवैस ने पिता की भारतीय नागरिता त्‍यागकर कतर का नागरिक बनने के संबंध में कहा 'मेरे पिता स्‍वतंत्र भारत से भी ज्‍यादा उम्रदराज हैं।' उनकी इस बात को कोई नहीं काटता। ओवैश ने यह भी कहा कि उन्‍हें कई फोन आए, जिनमें से कई भड़काऊ भी थे लेकिन वे कभी नहीं झुके।

ओवैश के इस कथन पर मुझे थोड़ा आपत्ति है। आपत्ति यह है कि उनके पिता ने हिन्‍दू देवियों की नग्‍न तस्‍वीरें बनाई और इसके बाद उनके खिलाफ कई मुकदमें किए गए। क्‍या ऐसा ही प्रयोग हुसैन साहब इस्‍लाम के साथ भी करने की हिम्‍मत दिखा सकते हैं। अगर हां तो अब तक ऐसी हिम्‍मत क्‍यों नहीं हुई, अगर नहीं तो उसका कारण तो उन्‍हें सामने आकर स्‍वयं ही बताना चाहिए। एक कारण जो मुझे दिखता है वह तो यही है कि इस्‍लाम में मोहम्‍मद साहब या खुदा का बुत (तस्‍वीर) बनाने की इजाजत नहीं है, ऐसा करने वाले के खिलाफ तुरंत कोई न कोई फतवा जारी कर देता है। अगर वे इस्‍लाम को इस सिद्धत से मानते हैं तो उन्‍हें दूसरे धर्मों की भी उसी तरह इज्‍जत करनी चाहिए। हिन्‍दू धर्म में देवियों को पूजा जाता है, उनकी नग्‍न तस्‍वीर के बारे में बुरे से बुरा व्‍यक्ति भी नहीं सोच सकता, क्‍या उन्‍हें इस बात का इल्‍म नहीं था।

अगली बात इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी भारत सरकार एमएफ हुसैन को देश की शान बताते हुए उन्‍हें पूरी सुरक्षा मुहैया कराने का आश्‍वासन देकर वापस भारत लौटने का न्‍यौता देती है। भारत के गृह सचिव जी के पिल्लई ने तो यहां तक कहा कि हुसैन के खिलाफ कोई मामला नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ चल रहे सभी मामलों को खत्म कर दिया है। विदेश सचिव निरूपमा राव ने भी कहा था कि वह चाहेंगी कि हुसैन खुद को भारत में सुरक्षित महसूस करें। इसमें मैं हुसैन साहब से एक बात पूछना चाहता हूं कि भारत जैसे धर्मनिर्पेक्ष देश में उन्‍होंने देवियों की नग्‍न तस्‍वीरें बनाई और सरकार उन्‍हें भारत की शान कहती है क्‍या वे कतर में रहकर इस्‍लाम के साथ ऐसा प्रयोग करके अपने आप को वहां महफूज महसूस कर सकते हैं।

Tuesday, March 9, 2010

इश्क की क्लास में

इश्क की क्लास में
अव्वल आने की फिराक में
जाने हम क्या-क्या कर गए
हंसी आया करती थी कभी जिन अदाओं पे
आज उन्हीं अदाओं पे मर गए।

इश्क की क्लास में
अव्वल आने की फिराक में
पर्ची बनाई कभी
कभी की इधर-उधर ताका-झांकी
अकेले हम ही फेल हुए
पास हो गई क्लास बाकी।

कभी प्यार भरी निगाह मिलाने में
कभी मीठी गोली की चाहत में
इश्क की क्लास में
मैडम को ही दिल दे दिया
उन्होंने भी नहीं समझा मेरे प्यार को
हर सब्जेक्ट में मार्क्स निल दे दिया

इश्क की क्लास में फेल हो गए
अब जाना कि पर्ची न काम आएगी
इस मैडम ने ठुकराया तो क्या हुआ
अगले साल नई मैडम आएगी।

Monday, March 1, 2010

मोहम्‍मद उमर ने भी खूब खेली होली

कल होली थी और हमने जमकर होली खेली, खैर ये कोई बड़ी बात नहीं है हम तो हमेशा ही जमकर होली खेलते हैं। होली के रंग का असली मतलब तो इस बार की होली में ही समझ में आया। अब यहां सवाल उठता है कि अब तक होली के रंग का असली मतलब क्‍या हम नहीं समझते थे, तो इमानदारी से इसका जवाब दिया जाए तो वह 'नहीं' होगा। क्‍योंकि कल पहली बार मैंने मोहम्‍मद उमर को होली खेलते देखा। होली खेलने के बाद फुर्सत के लम्‍हों में घर पर बैठा था और चाचा को कहीं जाना था, सो मैंने कहा कि चलो मैं भी चलता हूं। उन्‍हें अपनी दुकान के लिए चिकन लेना था सो दिल्‍ली के कल्‍याण पुरी में एक चिकन की दुकान पर पहुंच गए। अभी चिकन तोला ही जा रहा था कि उसी दुकान के ऊपर बने पहले माले से आवाज आई 'मोहम्‍मद उमर ... अरे मोहम्‍मद उमर, घर आजा।' यह सुनते ही मेरी पहली नजर उस मां की तरफ गई जो अपने बेटे को घर बुला रही थी और दूसरी उस तरफ जिस तरफ मोहम्‍मद उमर था। उमर को देखकर मन खुश हो गया, क्‍योंकि मो. उमर हाथ में पिचकारी लिए, चेहरा लाल-पीला और दोस्‍तों के पीछे रंग लगाने के लिए भागता फिर रहा था। उमर की उम्र वैसे तो मैं नहीं जानता, लेकिन अंदाजा लगा सकता हूं कि वह कोई 6-7 साल का रहा होगा।

इसी खुशी में अब एक बार फिर मेरी नजर उसकी मां की तरफ गई, लेकिन उनपर होली का कोई असर नहीं था। ठीक यही हाल चिकन बेच रहे उन साहब का था, जो संभावत: मोहम्‍मद उमर के पिता होंगे। उसकी मां के साथ एक और युवा लड़की खड़ी थी उसपर भी होली का कोई निशान नहीं था। कुल मिलाकर अकेला मोहम्‍मद उमर ही था जिसने पूरे घर में होली खेली थी। उमर खुश भी बहुत था, हो भी क्‍यों नहीं भई दोस्‍तों के साथ इस तरह से रंगों में सराबोर होना किसे नहीं अच्‍छा लगता। बात मजहब की नहीं है, बात है हमारी धूर्तता की। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं और भी धूर्त होते जाते हैं। हो सकता है बचपन में मोहम्‍मद उमर के पिता ने भी होली खेली हो और मां भी होली के रंगों में रंगी हो। लेकिन जैसे जैसे वे समझदार होते गए, दुनिया ने उनकी जिन्‍दगी से होली के रंग छीन लिए और मजहब के रंगों में रंग दिया।

क्‍या आपको याद है कैसे हम लोग बचपन में मिलकर रंगों में सराबोर हुआ करते थे और ईद पर दोस्‍तों के घर जाकर सेंवईयों का मजा लेते थे। अब हम दूसरे मजहब के त्‍योहारों का मजा नहीं ले पाते, क्‍योंकि अब हम समझदार हो गए हैं और इंसानियत हमसे दूर हो गई है। इसलिए आज दिल करता है कि क्‍योंकि नहीं हम हमेशा मोहम्‍मद उमर ही बने रहते। इस बात पर जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल याद आती है - 'ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्‍ती वो बारिश का पानी।' मोहम्‍मद उमर अपनी उस मासूमियत को हमेशा बनाए रखना, तुम शरीर से भले ही बड़े हो जाओ, लेकिन दिल-दिमाग से कभी बड़े मत होना। क्‍योंकि जिस दिन तुम दिल-दिमाग से बड़े हो जाओगे उस दिन ये दुनियावाले तुम्‍हारी जिन्‍दगी से भी होली के रंग छीन लेंगे।