कल होली थी और हमने जमकर होली खेली, खैर ये कोई बड़ी बात नहीं है हम तो हमेशा ही जमकर होली खेलते हैं। होली के रंग का असली मतलब तो इस बार की होली में ही समझ में आया। अब यहां सवाल उठता है कि अब तक होली के रंग का असली मतलब क्या हम नहीं समझते थे, तो इमानदारी से इसका जवाब दिया जाए तो वह 'नहीं' होगा। क्योंकि कल पहली बार मैंने मोहम्मद उमर को होली खेलते देखा। होली खेलने के बाद फुर्सत के लम्हों में घर पर बैठा था और चाचा को कहीं जाना था, सो मैंने कहा कि चलो मैं भी चलता हूं। उन्हें अपनी दुकान के लिए चिकन लेना था सो दिल्ली के कल्याण पुरी में एक चिकन की दुकान पर पहुंच गए। अभी चिकन तोला ही जा रहा था कि उसी दुकान के ऊपर बने पहले माले से आवाज आई 'मोहम्मद उमर ... अरे मोहम्मद उमर, घर आजा।' यह सुनते ही मेरी पहली नजर उस मां की तरफ गई जो अपने बेटे को घर बुला रही थी और दूसरी उस तरफ जिस तरफ मोहम्मद उमर था। उमर को देखकर मन खुश हो गया, क्योंकि मो. उमर हाथ में पिचकारी लिए, चेहरा लाल-पीला और दोस्तों के पीछे रंग लगाने के लिए भागता फिर रहा था। उमर की उम्र वैसे तो मैं नहीं जानता, लेकिन अंदाजा लगा सकता हूं कि वह कोई 6-7 साल का रहा होगा।
इसी खुशी में अब एक बार फिर मेरी नजर उसकी मां की तरफ गई, लेकिन उनपर होली का कोई असर नहीं था। ठीक यही हाल चिकन बेच रहे उन साहब का था, जो संभावत: मोहम्मद उमर के पिता होंगे। उसकी मां के साथ एक और युवा लड़की खड़ी थी उसपर भी होली का कोई निशान नहीं था। कुल मिलाकर अकेला मोहम्मद उमर ही था जिसने पूरे घर में होली खेली थी। उमर खुश भी बहुत था, हो भी क्यों नहीं भई दोस्तों के साथ इस तरह से रंगों में सराबोर होना किसे नहीं अच्छा लगता। बात मजहब की नहीं है, बात है हमारी धूर्तता की। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं और भी धूर्त होते जाते हैं। हो सकता है बचपन में मोहम्मद उमर के पिता ने भी होली खेली हो और मां भी होली के रंगों में रंगी हो। लेकिन जैसे जैसे वे समझदार होते गए, दुनिया ने उनकी जिन्दगी से होली के रंग छीन लिए और मजहब के रंगों में रंग दिया।
क्या आपको याद है कैसे हम लोग बचपन में मिलकर रंगों में सराबोर हुआ करते थे और ईद पर दोस्तों के घर जाकर सेंवईयों का मजा लेते थे। अब हम दूसरे मजहब के त्योहारों का मजा नहीं ले पाते, क्योंकि अब हम समझदार हो गए हैं और इंसानियत हमसे दूर हो गई है। इसलिए आज दिल करता है कि क्योंकि नहीं हम हमेशा मोहम्मद उमर ही बने रहते। इस बात पर जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल याद आती है - 'ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।' मोहम्मद उमर अपनी उस मासूमियत को हमेशा बनाए रखना, तुम शरीर से भले ही बड़े हो जाओ, लेकिन दिल-दिमाग से कभी बड़े मत होना। क्योंकि जिस दिन तुम दिल-दिमाग से बड़े हो जाओगे उस दिन ये दुनियावाले तुम्हारी जिन्दगी से भी होली के रंग छीन लेंगे।
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हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
Achha laga aapko padhna!
ReplyDeleteMind blowing Dude muhjee bhut pasand ayaa tuhjee pata hai kyuu
ReplyDeleteManish
एक शे'र है- जब से बस्तियों में लोग हिंदू मुसलमां हो गये, तब से मुश्किल दीदार-ए-इंसान हो गये। बच्चों का मन धर्म और मजहब की कड़ी रिवायतों से दूर होता है,लेकिन बढ़ती उम्र उसे इंसान से पहले हिंदू या मुसलमान बना देती है और इसी के साथ खत्म हो जाती है इंसानियत।
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई......
ReplyDeleteशिशु जब जन्म लेता है तो उसके साथ होती है उसकी सहज प्रवृति,उसकी मासूमियत...! हम अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षाओ को पूरा करने के लिए अनजाने ही अपने विचार अपनी सोच अपने तर्कों के साथ उस पर थोपते जाते है...बालक शनै-शनै यह सब स्वीकारता जाता है ...उसका स्व उसकी सहज प्रवृतिया...उसकी मासूमियत उससे छूटती जाती है,जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है...विजातीय सोच-विचार जो उसके अपने नहीं है,के कारण उसकी मुस्कान में,आँखों में चहरे की भाव-भंगिमा में परिवर्तन आने लगता है
ReplyDeleteउसके अपने स्व की मूल प्रवृतियों का विलोपन होते-होते उसके व्यवहार में...व्यक्तित्व में सहजता के स्थान पर कृत्रिमता का प्रवेश होता जाता है !
यदि हम बालक को उसकी सहजता और मासूमियत के साथ बड़ा होने दे जो उसमे जन्मतः विद्यमान है तो बदले में हमें प्राप्त होगा...एक सुन्दर और समस्याओं से रहित भारत....!!!
स्वागत है बलोग जगत में,अच्छा लगा आपका लेख ।
ReplyDeletebahut badhiya !!!
ReplyDeleteekdum sach kaha aapne, kaash k sabhi dil se bachhe hi rehte....
बात मजहब की नहीं है, बात है हमारी धूर्तता की। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं और भी धूर्त होते जाते हैं। हो सकता है बचपन में मोहम्मद उमर के पिता ने भी होली खेली हो और मां भी होली के रंगों में रंगी हो। लेकिन जैसे जैसे वे समझदार होते गए, दुनिया ने उनकी जिन्दगी से होली के रंग छीन लिए और मजहब के रंगों में रंग दिया। kya bat he yaar. ye line batati hain ki aapki soch waqai prodh hai.
ReplyDeletehttp://www.flickr.com/photos/aneetavashishta/ http://neeta-vashishta.blogspot.com/
भाई अगर यह इशारा मेरी ओर है तो बताओ आपका इशारा किस पोस्ट या कमेंटस की तरफ है,या फिर मुझ से पूछो होली के दिन किस पोस्ट से मुझे अच्छा नहीं लगा, सोमवार को मैंने कोई पोस्ट पब्लिश नहीं की थी, रविवार में जो पोस्ट की थी, उस पर ब्लागर भाइयों को सबसे अधिक प्यार मिला था,
ReplyDeletehttp://umarkairanvi.blogspot.com/2010/02/jihad-book-writer-swami.html
बहरहाल आपने अपने विचारों को सम्मान के साथ बहुत अच्छा लिखा आपको झेलने की आदत डालने में कोई बुराई नहीं
इस नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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