ममता बनर्जी प्रचंड बहुमत और जनता की अपेक्षाओं के घोड़े पर सवार होकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। फिर अपेक्षाएं हों भी क्यों न, उन्होंने पिछले 34 सालों से एक ही मूड में सोए हुए बंगाली मानुष को जगाया है। तीन दशक से भी ज्यादा समय तक पश्चिम बंगाल में रेड लाइट जली रही और विकास का पहिया थमा रहा। वैसे भी रेड लाइट हो तो आपको रुकना ही पड़ता है वरना चालान घर पहुंचने का डर रहता है। लेकिन इस राज्य में ये रेड लाइट इतने ज्यादा समय तक रह गई कि जिन्दगियां ही ठप्प हो गईं। अब ग्रीन लाइट हुई है तो दीदी को विकास की रेस में गुजरात जैसे राज्यों से टक्कर लेनी है। ममता की मजबूरी तो यह है कि इतने सालों में वह ट्रैक कछ ज्यादा ही उबड़-खाबड़ हो गया है, जिस पर दीदी तो दौड़ लगानी है ऊपर से लेफ्ट के हर्डल तो सामने आएंगे ही।
तो जनाब मामला यह है कि ममता को उबड़-खाबड़ ट्रैक पर हर्डल रेस दौड़नी है। बात सिर्फ इतनी ही होती तो और थी, उन्हें तो विकास की रेस में सरपट दौड़ रहे गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों को चुनौती भी देनी है। इन्हें चुनौती नहीं देंगी तो जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी और ममता का कैरेक्टर भी ऐसा नहीं है कि वे बिना लड़े हार मान जाएं। तथ्य तो यह हैं कि पश्चिम बंगाल दीवालिया होने के कगार पर है और आशंका जताई जा रही है कि ममता का कार्यकाल खत्म होने तक ऐसा हो भी सकता है। सिर्फ पिछले एक साल में ही रिजर्व बैंक से 62 बार ओवर ड्राफ्ट और केन्द्र सरकार से 109 बार आकस्मिक मदद ले चुका है बंगाल। यही नहीं जनाब, बंगाल पर करीब दो लाख करोड़ का कर्ज भी है और यह देश का सबसे ज्यादा कर्जदार राज्य है। यह कर्ज राज्य के घरेलू उत्पाद (GDP) की तुलना में 41 प्रतिशत है। राज्य की कमाई का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा तो ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। घरेलू उत्पाद व राजस्व घाटे का अनुपात इतना भयानक है कि वित्त आयोग को लग रहा है कि तीन साल बाद बंगाल कर्ज चुकाने लायक भी नहीं बचेगा और इस तरह राज्य दीवालिया हो जाएगा। ये सब हर्डल पार करके ममता बंगाल को दौड़ा भले ही न पाएं, अगर चलने लायक भी बना दें तो उनकी वाह वाह निश्चित है।
आर्थिक उदारीकरण से पहले भी बंगाल में कई उद्योग थे जिन पर उसे गर्व होता था, लेकिन बार-बार उठ खड़े होते लाल झंडों ने न सिर्फ इन्हें ठंडा किया बल्कि यहां आने की तैयारी कर रहे उद्योगों के जोश पर भी पानी डालने का काम किया। न उद्योग, न आम आदमी का विकास से कोई नाता और न ही इन्फ्रास्ट्रक्चर, इन सब से जर्जर हो चुके ट्रैक पर ममता दौड़ पाएंगी? खुदा उनकी मदद करे। वैसे पिछले 34 सालों में वाम सरकार ने राज्य की जनता को जिस तरह से सब्सिडी की आदत लगाई है उससे पार पाना मुश्किल होगा। यही ममता के लिए सबसे बड़ा हर्डल भी होने वाला है। इसके अलावा हर्डल और भी कई हैं। खुद ममता ने भी अपने सामने एक हर्डल खड़ा किया हुआ है, सिंगूर से टाटा को भगाने के बाद अब वे कैसे उद्योगों को बंगाल आने पर मनाती हैं यह देखने वाली बात होगी। अगर ममता ने यह हर्डल पार कर लिया तो फिर अगले चुनाव में उनके सामने चमचमाता हुआ बिना गड्ढों का ट्रैक भी होगा और हर्डल भी ऐसे होंगे कि उनसे पार पाना बहुत आसान होगा।
एक रोचक तथ्य है भी है कि सिंगापुर के पहले राष्ट्रपति युसोफ बिन इशाक ने 1965 में जब देश आजाद हुआ तो सिंगापुर को कोलकाता की तर्ज पर बसाने का सपना देखा था। इस तथ्य तो देने का मकसद सिर्फ यही है कि कोलकाता के पास बेमिसाल औद्योगिक धरोहर थी और राज्य की राजधानी होने के नाते पूरे राज्य पर इसका फर्क जरूर पड़ता। युसोफ ने जो सपना देखा था उसकी बानगी यह थी कि भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने अंतिम सालों में देश की राजधानी दिल्ली को सिंगापुर जैसा रूप देने की बात कही और राजधानी में इसकी कुछ मिसालें आज भी देखने को मिलती हैं। सिंगापुर विकास के पहिए पर सरपट दौड़ता रहा और पश्चिम बंगाल अपने ही रास्ते में गड्ढ़े खोदता रहा, अब इन गड्ढ़ों को पार करके तमाम हर्डलों के साथ ममता को राज्य में ऐसी ममता बरसानी है कि भूत की तरह पश्चिम बंगाल का भविष्य भी उज्वल नजर आए।