Thursday, January 21, 2010

पहाड़ों के जीवन का दूसरा पहलू, अभाव में जीता पहाड़



पहाड़ों का जिक्र आते ही अक्सर जेहन में सबसे पहले मसूरी, नैनीताल, शिमला, कुफरी, या कश्मीर के किसी हिलस्टेशन का नाम आता है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि इनकी खूबसूरती की तरफ हर साल लाखों लोग आकर्षित होते होकर यहां पहुंचते हैं। जाहिर है आप भी कई बार इनमें से कुछ वादियों में भटके होंगे और कभी मौका नहीं मिला तो जागती आंखों से सपनों में ही इनका दीदार कर लिया होगा। अब सोचिए जिसका जन्म ही खूबसूरत वादियों में हुआ हो उसके लिए इन वादियों का कितना महत्व होगा। शायद वह इन वादियों को उस नजर से न देखे जिस नजर से एक पर्यटक यहां जाकर देखे। इसलिए तो इस बार की सर्दियों में मुझे अपने गांव जाने का मौका मिला तो मैं दुखी हो गया। पहले तो बता दूं कि मेरा गांव उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में रानीखेत से करीब 35 किमी दूर चमड़खान और भिकियासैण के बीच में है और गांव का नाम है नैटी। अब आप कहेंगे कि अपनी जन्मभूमि गया और इतनी खूबसूरत जगह जाकर भी दुखी क्यों हुआ होगा। तो इसका जवाब आपको नीचे मिल जाएगा।

दिसम्‍बर के पहले हफ्ते में एक बार फिर पहाड़ जाने का मौका मिला। मौका था, बड़ी मॉसी के बेटे की शादी। पहले पहल तो पहाड़ों में एक बार फिर कुछ दिन बिताने के एहसास ने ही मन में रोमांच पैदा कर दिया। खैर वो वक्‍त भी आ गया जब मैं और मां पहाड़ की गाड़ी पर सवार होकर वहां के लिए चल दिए। मन में कई रंग-बिरंगे खयाल आ रहे थे, 'पहाड़ में इस समय कितनी हरियाली होगी, क्‍या सुंदर नजारे होंगे, क्‍या कड़ाके की ठंड होगी, दिन में धूप में बैठना कितना अच्‍छा लगेगा, सुबह-सुबह गरम पानी से मुंह-हाथ धोने में कितना अच्‍छा लगेगा वगैरह वगैरह। इन्‍हीं खयालों की राहों में भटकते हुए कब गाजियाबाद, मुरादाबाद, काशीपुर, रामनगर और फिर कॉर्बेट पार्क निकल गया पता ही नहीं चला। शायद मैं भी कुछ-कुछ उसी पर्यटक की तरह पहाड़ को मन में बिठाए था जो कभी-कभी छुट्टियां मनाने पहाड़ों की तरफ चल देते हैं। लेकिन यहां एक अंतर था, अक्‍सर वो पर्यटक गर्मियों में पहाड़ का नजारा करने जाते हैं जबकि मैं सर्दियों में आया था। उन पर्यटकों से अलग मुझे पहाड़ के जीवन की दुस्‍वारियों में बारे में भी शायद कुछ ज्ञान था।

इस बार गांव गया तो पहले से ही मन में एक विश्‍वास था कि सर्दियों का समय है कम से कम इस समय तो पानी की कि‍ल्‍लत नहीं होगी। लेकिन गांव पहुंचकर जो नजारा देखा वो मुझे सपनों से जगाने के लिए काफी था। गांव में ही बनी टंकी में कभी पानी ज्‍यादा हो जाए तो ओवर लोड होने वाले पानी के लि‍ए ठीक उसी टंकी के नीचे दूसरी टंकी बन रही थी। ओवरलोड पानी के लिए दूसरी टंकी बन रही थी इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सब कुछ ठीक-ठाक था। सरकारी प्‍लमर गांव में आया तो समझ आया कि असल में स्रोत से पानी कम आ रहा है और उसे गांव से एक वालंटीयर चाहिए जो उसके साथ स्रोत तक जाकर नल की मरम्‍मत करने में मदद कर दे। खैर यहां तो वालंटीयर मिल गया और शाम तक पानी दुरुस्‍त भी हो गया। अगले दिन अपने गांव के ऊपर वाले गांव (बंगोड़ा) में चला गया तो वहां पानी की टंकी का नजारा देखकर मैं दंग रह गया। टंकी को देखकर अखबार की वही घिसी पिटी हैडलाइन याद आई 'पानी पर पहरा'। जी हां पानी पर पहरा, यहां नल पर एक टिन के डिब्‍बे को कुछ इस तरह से ताला लगाया गया था जिससे कोई वहां से ज्‍यादा पानी न ले सके। फिर एक खयाल आया कि जब सर्दियों में ये हाल है तो गर्मियों में क्‍या होगा।

पहाड़ सुंदर हैं, हरे-भरे हैं, यहां पर्यटक छुट्टियां बिताने आते हैं, यहां के लोग बहुत अच्‍छे हैं, यहीं पर ज्‍यादातर नदियों का उद्गम स्‍थल है मतलब ज्‍यादातर नदियां यहीं से पैदा होती हैं और मैदानों की प्‍यास बुझाती हैं। पहाड़ सुंदर हैं इसमें किसी को भी कोई शक नहीं होना चाहिए, वैसे भी सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। हरे-भरे हैं यह भी सच है, इसे पहाड़ के लोग ज्‍यादा अच्‍छी तरह से जानते हैं क्‍योंकि जंगल घर के पास तक पहुंच चुका है और जंगली जानवर बाघ (वो तो अब लुप्‍तप्राय है), सूअर, भालू घरों तक आ जाते हैं। जंगल हरे-भरे जरूर हैं लेकिन खेतों में सुअर हरियाली को रहने नहीं देते, इसलिए ग्रामीण जंगलों को कब तक हरा रहने देंगे इसकी कोई गारंटी नहीं।

पर्यटक यहां छुट्टियां बिताने जरूर आते हैं लेकिन यहां पलायन का मंजर ऐसा है कि गांव के गांव खाली हो चुके हैं। राज्‍य को बने 9 साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन कोई भी ऐसी कारगर नीति अभी तक राज्‍य सरकार नहीं बना पाई जिससे पलायन को रोका जा सके। कोई बाखेली (एक लाइन में बने कई मकान एक साथ) जो कभी बच्‍चों की किलकारियों और शाम को चाय के समय जमती महफिलों से गुलजार रहा करती थी आज उनमें से बमुश्किल कोई एक घर के ही दरवाजे खुले मिलते हैं। चैत्र मास की रातों में झोड़े और सर्दियों की लंबी रातों में आण काथ में जहां रतजगा हुआ करता था वहीं अब अंधेरा होते ही गांव में वीराना पसर जाता है। जो कुछ लोग गांव में बच गए हैं वे भी एक दूसरे के घर पर महफिल जमाकर बैठने की बजाए अपने घर में ही सास-बहू के नाटक में मशगुल रहना ज्‍यादा पसंद करते हैं।

अब कहें क्‍या अब भी पहाड़ों को सिर्फ हरा-भरा, सुंदर और सैलानियों की आरामगाह कहा जाना ठीक होगा। क्‍या अब भी यह भरोसा किया जा सकता है कि गंगा, यमुना जैसी बड़ी-बड़ी नदियां इन्‍हीं पहाड़ों से निकली होंगी। शायद इस बार मैंने पहाड़ों को ज्‍यादा करीब से जाना और वहां के जीवन को समझने की तरफ एक कदम बढ़ाया। बरसात की कमी के कारण ज्‍यादातर जल स्रोत सूख चुके हैं और खेतों में फसल पहले ही नहीं हो रही थी और अब भालू व सुअर भी उन्‍हें नष्‍ट करने आ पहुंचे हैं। अभावों के बीच जीता पहाड़ी जीवन अक्‍सर अपने ही अभावों से हारने को मजबूर रहता है।

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