Thursday, September 22, 2011

32 रुपए की अमीरी: कैसे पूरी होगी थाली?

भारत सरकार के अनुसार अगर आप दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नई जैसे शहरों में रहते हैं और चार लोगों के परिवार के खाने पर 32 रुपए खर्च करते हैं तो आप गरीब नहीं है। यही नहीं छोटे शहरों और गांवों में 26 रुपए खर्च करने वाला परिवार गरीब नहीं होता।

हालांकि इस आंकड़े को कई बुद्धिजीवी लोग गरीबों के साथ सरकार द्वारा किया गया मजाक बता रहे हैं, कुछ को तो यह सितंबर माह में सरकार द्वारा गरीबों को अप्रैल फूल बनाया जाना लग रहा है। लेकिन जिस किसी भी व्यक्ति ने यह आंकड़ा बनाया है उसे देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिया जाना तो बनता है बॉस। यही नहीं उस व्यक्ति को एक माह तक 32 रुपए में दो वक्त खाना खाकर एक आदर्श स्थापित करने का मौका भी दिया जाना चाहिए।

एक छोटा सा आंकड़ा दिल्ली सरकार का है, जिसमें सरकार ने पिछले दिनों राजधानी में कई जगह सरकारी फूड स्टॉल खोले। इन फूड स्टॉल पर एक वक्त का खाना (4 रोटी, सब्जी, दाल और चावल) 15 रुपए में मिलता है। मतलब दो वक्त के खाने पर खर्च आता है 30 रुपए, फिर भी केन्द्र सरकार के ताजा आंकड़े के अनुसार 2 रुपए बच जाते हैं। दिल्ली सरकार एक व्यक्ति को 15 रुपए में खाना खिला रही है और ताजा आंकड़ा 4 लोगों के परिवार का है। अब सोचें कि कैसे 32 रुपए में चार लोग खाना खा सकते हैं जबकि सरकार ही इतने में नहीं खिला पा रही है।

इसके अलावा एक और आंकड़ा है, इसके बाद आप ही बताएं कि इनमें से क्या कम किया जाए कि जिंदा बचे रह जाएं।

सरकारी राशन की दुकान पर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए गेहूं 4.65 प्रति किलो मिलता है और एक महीने में प्रति परिवार 25 किलो गेहूं दिया जाता है। इस हिसाब से एक परिवार हर माह गेहूं पर कम से कम 116.25 रुपए खर्च करता है इसके अलावा गेहूं पिसाई पर वह और 50 रुपए खर्च करता है।

इसी तरह गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को राशन की दुकान से 6.15 प्रति किलो के हिसाब से 10 किलो चावल दिया जाता है। इस तरह एक परिवार प्रतिमाह कम से कम 61.50 रुपए चावल पर खर्च करता है। गेहूं और चावल कुल मिलकार 35 किलो अनाज गरीबों को दिया जाता है और अगर राशन वाले की मेहरबानी हुई तो करीब 30 किलो अनाज गरीब को मिल भी जाता है। कई जगह तो राशन वाले 5 किलो चावल और 10 किलो गेहूं पर ही गरीबों को टिका देते हैं। सरकार के अनुसार बेहतरीन अनाज गरीबों में वितरित होता है लेकिन किसी राशन की दुकान पर जाकर आप भी उस बेहतरीन अनाज की सच्चाई जान सकते हैं। इसके बाद उन्हें बाजार भाव से अनाज खरीदना पड़ता है जो बहुत महंगा होता है।

इसके अलावा पूरे महीने जिंदा रहने के लिए अगर एक व्यक्ति पूरे महीने सिर्फ एक ही दाल (पीली मटर दाल) खाता है तो 25 प्रति किलो के हिसाब से 4 किलो दाल पर वह 200 रुपए खर्च करता है। सिर्फ एक सब्जी आलू ही अगर गरीब महीने भर खाए तो वह 8 रुपए प्रति किलो के हिसाब से कम से कम 8 किलो आलू खाता है और उस पर खर्च आएगा 64 रुपए।

एक गरीब व्यक्ति महीने में कम से कम एक लीटर सरसों का तेल तो खाने पर इस्तेमाल कर ही लेता है इसका खर्च आया 65 रुपए। माना जाए कि गरीब महीने में सिर्फ एक रसोई गैस सिलेंडर से काम चला लेता है तो भी इस पर खर्च आया 400 रुपए। महीने भर में प्याज पर खर्च 100 रुपए। करीब 20 रुपए का लहसुन, अदरक आदि तो खा लेता है गरीब बेचारा। एक गरीब महीने भर में 100 रुपए चाय पत्ती पर, 150 रुपए चीनी और 390 रुपए दूध पर भी खर्च करता है। कम से कम 1 किलो नमक महीने भर में खाए तो भी 10 रुपए और करीब 50 रुपए टमाटर पर भी महीने भर में खर्च होते ही हैं। इस हिसाब से महीने का खर्च बनता है 1726.75 रुपए यानि प्रतिदन 57.56 रुपए। अब आप ही बताएं कि इसमें से कौन सी चीज न खाई जाए या कौन सी चीज कम की जाए कि खर्च 32 रुपए से कम हो, ताकि गरीबी रेखा से नीचे मिलने वाले सरकारी लाभ मिल सकें।


गेहूं 4.65 प्रति किलो (25 किलो): 116.25 (एपीएल पर 6.65 प्रति किलो)
चावल 6.15 प्रति किलो (10 किलो): 61.50 (एपीएल पर 9.15 प्रति किलो)
पीली मटर दाल 25.00 प्रति किलो: 200.00
आलू: 8.00 प्रति किलो/ 8 किलो:  64.00
महीने का सरसों का तेल: 65.00
रसोई गैस: 400.00
माह भर का प्याज: 100.00
माह भर का लहसुन: 20.00
माह भर का चाय: 100.00
माह भर का चीनी: 150.00
माह भर का टमाटर: 50.00
माह भर का दूध (प्रतिदिन आधा किलो): 390.00
माह भर का नमक: 10.00
कुल खाने पर खर्च : 1726.75 रुपए। यानि प्रतिदन 57.56 रुपए। ये तो तब है मिर्च-मसाले व अन्य चीजें इसमें शामिल नहीं हैं।

इनके अलावा खर्चे और भी जिन्हें जोड़ दें तो सरकार का गरीबी रेखा का आंकड़ा शर्मसार हो जाएगा।
माह भर का पानी बिल = 50.00
कमरे का किराया : 1000.00
माह भर का बिजली बिल = 100.00
इनके अलावा साबुन, मसाले, छोटी-मोटी बीमारी और दवा पर खर्च, आने जाने का बस का किराया व अन्य।

Saturday, August 27, 2011

फिर बज उठेगी रणभेरी

फिर बज उठेगी रणभेरी
फिर से गूंजेगा इंकलाब
फिर से एक नया सवेरा होगा
वतन पर मर मिटने वाला
फिर कोई उठ खड़ा होगा।

एक नये सवेरे की चाहत में
एक नई लौ जल उठी है
उम्मीद की रौशनी से रौशन
जिंदगी अब अपने अतीत से रूठी है
अब तो सूरज उगने वाला है।

अब सूरज उगने वाला है
अब कहीं किसी आतताई की नहीं चलेगी
अब तो मंद मंद पूर्वा चलेगी
उठ खड़े होंगे भारत मां के वीर सपूत
अब भ्रष्टाचारियों की बैंड बजेगी।

Tuesday, August 23, 2011

देश फिर एक हुआ है

देश फिर एक हुआ है
बेवजह भटक रही जवानी की
रगों में फिर से खून का कतरा बहा है
देश फिर से एक हुआ है।

एक बूढ़े शेर ने दिखाई अपनी जवानी है
आंदोलित कर दिया उसने हिन्दुस्तान को,
हर कोई उठ खड़ा हुआ है आज
हर जुबान पर उसी 'जवान' की कहानी है।

अन्ना डटे हुए मैदान में
दुनिया जिसे देख हैरान है
जन-गण इतना जुट गया कि
बड़े-बड़े सूरमा परेशान हैं।

लक्ष्यहीन हो जवानी भटक रही थी
अन्ना ने एक चिंगारी दी
अब देखेगी दुनिया युवाओं की ताकत
भ्रष्टतंत्र से अब मिलकर रहेगी राहत।

महबूब के हसीन सपने नहीं
महबूबा की बाहों की चाहत नहीं
देश के युवाओं की आज सिर्फ एक चाहत
जन लोकपाल जन लोकपाल।

Monday, August 15, 2011

तख्ता पलट ही एकमात्र रास्ता है


अन्ना के साथ आज पूरा देश है और अन्ना आज हिन्दुस्तान की जनता के रोष का प्रतीक बन गए हैं। शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने की जो कोशिश केन्द्र सरकार कर रही है उसे देखते हुए तो साफ लगता है कि यह सरकार निरंकुश हो चुकी है। ऐसी निरंकुश सरकार को किस तरह से उखाड़कर फेंका जाता है यह हमने हाल ही में मिस्र (इजिप्ट) में देखा है। जो हालात अभी देश के बन रहे हैं उसे देखते हुए सेना (आर्मी) को इस निरंकुश सरकार उखाड़ फेंकना चाहिए। वैसे सेना भले ही ऐसा करे या न करे इस देश की जनता तो ये कर ही देगी। लेकिन इस सरकार को अब एक दिन या एक घंटे भी सत्ता में रहने का हक नहीं है। इसलिए मेरी सेना से गुजारिश है कि वह मिस्र की तरह सरकार को उखाड़ फेंके।

जिस तरह से आज सुबह अन्ना और उनके समर्थकों को गिरफ्तार किया है उसे देखते हुए सरकार की नीयत का पता चलता है। महात्मा गांधी के पौत्र तुषार गांधी ने अंदेशा जताया कि अब इस आंदोलन का वह दौर आ गया है जब राजनीतिक पार्टियों के अरातक तत्व उनके बीच घुसकर अराजकता या दंगा फैला दें। क्योंकि अन्ना ने सभी से अहिंसक आंदोलन में शामिल होने को कहा है। उन्होंने किसी भी तरह की हिंसा में शामिल नहीं होने को कहा है। लेकिन कुछ तत्व अब उनके इस आंदोलन को अपने फायदे के लिए या उसे बदनाम करने के लिए ऐसा कर सकते है। तुषार गांधी का यह बयान बेबुनियाद भी नहीं है। जिस तरह से सरकार कार्रवाई कर रही है उसे देखते हुए लगता तो यही है कि सरकार इस जन आंदोलन को दबाने के लिए दंगा तक करवा सकती है।

एक बार फिर कांग्रेस भाजपा को गुजरात दंगों की याद दिला रही है लेकिन उन्हें 1984 के दंगे भी नहीं भूलने चाहिए जो उनके राज में हुए थे। अन्ना को गिरफ्तार करके सरकार ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। अब देश की जनता उनका जो हाल करेगी उससे सरकार खुद भी डरी हुई है इसलिए अब अन्ना को व्यक्तिगत आक्षेप लगाने से मना किया गया है। सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने तो अन्ना हो भला व्यक्ति बताते हुए उनकी मांगों का समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि मैं स्वयं अन्ना का समर्थन करती हूं लेकिन जिस तरह का अंदोलन वह कर रहे हैं उसमें कुछ भी अनहोनी हो सकती है। साफ है जिस तरफ तुषार गांधी इशारा कर रहे थे अंबिका सोनी भी वही बात कर रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं की सरकार अन्ना के आंदोलन की आंच को कम करने के लिए समर्थकों के बीच अपने कुछ लोगों को भेजकर अराजकता और हिंसा फैलाने के बारे में सोच रही हो।



Sunday, August 14, 2011

आजादी के दीवाने आज भी हैं

आजादी के दीवाने आज भी हैं
खुले आसमान में पंख पसार
उड़ने की चाह रखने वाले
कुछ परवाने आज भी हैं।

धूप पंख जला देगी तो क्या हुआ
बारिश और हवा उड़ने नहीं देगी
तो क्या हुआ...
अरमानों को पंख लगाने का विश्वास आज भी है।

दुनिया देखेगी एक दिन अपनी भी उड़ान
तो क्या हुआ अभी वक्त लगेगा...
एक दिन पूरी सरगम अपनी होगी
और साज भी अपना होगा।

भारत माता के वीर सपूत
फिर उठ खड़े होंगे,
भ्रष्टों की गिरफ्त से होगा आजाद अपना हिंद
क्योंकि...
आजादी के दीवाने आज भी है।

Wednesday, August 10, 2011

आज फिर यमुना को मुस्कुराते देखा

आज फिर यमुना को मुस्कुराते देखा
अपनी ही जवानी पर इठलाते देखा
मदमस्त अपनी चाल में बल खाते देखा

पानी से लबालब भरी थी आज यमुना
किनारों पर उछल-कूद कर रही थी आज यमुना
बहारों के दिन लौट आये, गा रही थी आज यमुना

लेकिन...

बीचों बीच एक बड़े से टापू को उसे चिढ़ाते देखा
गंदे पड़े किनारों को उसकी शान में बट्टा लगाते देखा
पुल पर खड़े लोगों पर यमुना पर झूठा सट्टा लगाते देखा

यमुना फिर चली है खुद ही करने अपनी सफाई
रोज नेताओं से मिलती रही इसे दुहाई
आज उसे खुद ही अपनी सफाई में तैनात होते देखा

जिन किनारों पर पसरा रहता था सन्नाटा
उन्हीं किनारों पर आज कल-कल शोर सुना
और सूने पड़े चुके किनारों पर बच्चों-बड़ों-बूढ़ों को आते देखा।

Tuesday, July 19, 2011

पहाड़ों की सैर कर आया हूं

पहाड़ों की सैर कर आया हूं
एक बार फिर अपने बचपन से मिल आया हूं
यूं तो बहुत सी यादें हैं उस गांव में
जब रात जवां होती थी तारों की छांव में।

पहाड़ों की सैर कर आया हूं
दुनिया के सबसे हसीन लम्हों से फिर मिल आया हूं
वो सुबह मंद मंद हवा के साथ सूरज का उगना
और सिहरन के साथ लालिमा में उसका समा जाना
सब एक बार फिर अपनी झोली में भर लाया हूं।

एक बार फिर पहाड़ों की सैर कर आया हूं
टेढ़ी-मेढ़ी सर्पीली सी सड़कों पर
धूल उड़ाती जीपों, और झींगुरों की आवाज से
तान अपनी फिर जोड़ आया हूं।

बरसात की उस रिमझिम से
दरख्तों की उन बाहों से
और उमड़ती जवानी की आहों से
फिर बचपन के हसीन दिनों को जी आया हूं।

Saturday, May 21, 2011

पश्चिम बंगालः उबड़-खाबड़ ट्रैक पर हर्डल रेस

ममता बनर्जी प्रचंड बहुमत और जनता की अपेक्षाओं के घोड़े पर सवार होकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। फिर अपेक्षाएं हों भी क्यों न, उन्होंने पिछले 34 सालों से एक ही मूड में सोए हुए बंगाली मानुष को जगाया है। तीन दशक से भी ज्यादा समय तक पश्चिम बंगाल में रेड लाइट जली रही और विकास का पहिया थमा रहा। वैसे भी रेड लाइट हो तो आपको रुकना ही पड़ता है वरना चालान घर पहुंचने का डर रहता है। लेकिन इस राज्य में ये रेड लाइट इतने ज्यादा समय तक रह गई कि जिन्दगियां ही ठप्प हो गईं। अब ग्रीन लाइट हुई है तो दीदी को विकास की रेस में गुजरात जैसे राज्यों से टक्कर लेनी है। ममता की मजबूरी तो यह है कि इतने सालों में वह ट्रैक कछ ज्यादा ही उबड़-खाबड़ हो गया है, जिस पर दीदी तो दौड़ लगानी है ऊपर से लेफ्ट के हर्डल तो सामने आएंगे ही।

तो जनाब मामला यह है कि ममता को उबड़-खाबड़ ट्रैक पर हर्डल रेस दौड़नी है। बात सिर्फ इतनी ही होती तो और थी, उन्हें तो विकास की रेस में सरपट दौड़ रहे गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों को चुनौती भी देनी है। इन्हें चुनौती नहीं देंगी तो जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं होंगी और ममता का कैरेक्टर भी ऐसा नहीं है कि वे बिना लड़े हार मान जाएं। तथ्य तो यह हैं कि पश्चिम बंगाल दीवालिया होने के कगार पर है और आशंका जताई जा रही है कि ममता का कार्यकाल खत्म होने तक ऐसा हो भी सकता है। सिर्फ पिछले एक साल में ही रिजर्व बैंक से 62 बार ओवर ड्राफ्ट और केन्द्र सरकार से 109 बार आकस्मिक मदद ले चुका है बंगाल। यही नहीं जनाब, बंगाल पर करीब दो लाख करोड़ का कर्ज भी है और यह देश का सबसे ज्यादा कर्जदार राज्य है। यह कर्ज राज्य के घरेलू उत्पाद (GDP) की तुलना में 41 प्रतिशत है। राज्य की कमाई का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा तो ब्याज चुकाने में ही चला जाता है। घरेलू उत्पाद व राजस्व घाटे का अनुपात इतना भयानक है कि वित्त आयोग को लग रहा है कि तीन साल बाद बंगाल कर्ज चुकाने लायक भी नहीं बचेगा और इस तरह राज्य दीवालिया हो जाएगा। ये सब हर्डल पार करके ममता बंगाल को दौड़ा भले ही न पाएं, अगर चलने लायक भी बना दें तो उनकी वाह वाह निश्चित है।

आर्थिक उदारीकरण से पहले भी बंगाल में कई उद्योग थे जिन पर उसे गर्व होता था, लेकिन बार-बार उठ खड़े होते लाल झंडों ने न सिर्फ इन्हें ठंडा किया बल्कि यहां आने की तैयारी कर रहे उद्योगों के जोश पर भी पानी डालने का काम किया। न उद्योग, न आम आदमी का विकास से कोई नाता और न ही इन्फ्रास्ट्रक्चर, इन सब से जर्जर हो चुके ट्रैक पर ममता दौड़ पाएंगी? खुदा उनकी मदद करे। वैसे पिछले 34 सालों में वाम सरकार ने राज्य की जनता को जिस तरह से सब्सिडी की आदत लगाई है उससे पार पाना मुश्किल होगा। यही ममता के लिए सबसे बड़ा हर्डल भी होने वाला है। इसके अलावा हर्डल और भी कई हैं। खुद ममता ने भी अपने सामने एक हर्डल खड़ा किया हुआ है, सिंगूर से टाटा को भगाने के बाद अब वे कैसे उद्योगों को बंगाल आने पर मनाती हैं यह देखने वाली बात होगी। अगर ममता ने यह हर्डल पार कर लिया तो फिर अगले चुनाव में उनके सामने चमचमाता हुआ बिना गड्ढों का ट्रैक भी होगा और हर्डल भी ऐसे होंगे कि उनसे पार पाना बहुत आसान होगा।

एक रोचक तथ्य है भी है कि सिंगापुर के पहले राष्ट्रपति युसोफ बिन इशाक ने 1965 में जब देश आजाद हुआ तो सिंगापुर को कोलकाता की तर्ज पर बसाने का सपना देखा था। इस तथ्य तो देने का मकसद सिर्फ यही है कि कोलकाता के पास बेमिसाल औद्योगिक धरोहर थी और राज्य की राजधानी होने के नाते पूरे राज्य पर इसका फर्क जरूर पड़ता। युसोफ ने जो सपना देखा था उसकी बानगी यह थी कि भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने अंतिम सालों में देश की राजधानी दिल्ली को सिंगापुर जैसा रूप देने की बात कही और राजधानी में इसकी कुछ मिसालें आज भी देखने को मिलती हैं। सिंगापुर विकास के पहिए पर सरपट दौड़ता रहा और पश्चिम बंगाल अपने ही रास्ते में गड्ढ़े खोदता रहा, अब इन गड्ढ़ों को पार करके तमाम हर्डलों के साथ ममता को राज्य में ऐसी ममता बरसानी है कि भूत की तरह पश्चिम बंगाल का भविष्य भी उज्वल नजर आए।

क्या इतना आसान है पाकिस्तान पर हमला करना?

जी हां! ये सवाल अब बार-बार उठ रहा है कि भारत क्यों नहीं पाकिस्तान पर हमला कर देता है। दाऊद इब्राहिम के अलावा आतंकवादी गुट लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद आदि का खात्मा तो हम जाने कब से चाहते हैं। पाकिस्तान की राजधानी के नजदीक ही छुपे बैठे दुनिया के सबसे खूंखार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के खिलाफ अमेरिका की कार्रवाई के बाद तो ये सवाल और भी मुखर हो गए हैं। हर कोई पाकिस्तान को पाकिस्तान में जाकर ही ठोकने-बजाने की बात करने लगा है। अमेरिका ने लादेन को मारने के लिए जो किया वैसा करने की क्षमता हमारे अंदर भी है और हम तैयार भी हैं- ये बात किसी आम आदमी ने नहीं बल्कि सेना अध्यक्ष वीके सिंह ने कही। मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी तो पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने पर आमादा है। उसका बस चले तो वह आज के आज पाकिस्तान पर दस-बीस बम गिराकर उसका काम तमाम कर दे।

वैसे बीजेपी का अभी बस भले ही न चले, लेकिन जब वो सत्ता में थे तो उन्होंने ‘बस’ जरूर चलाई थी। 19 फरवरी, 1999 को बीजेपी के शासन में ही दिल्ली और लाहौर के बीच बस सेवा शुरू हुई थी। खुद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस बस में बैठकर गए और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अटारी बॉर्डर पर उनका स्वागत किया। इसके बाद मई-जून में पाकिस्तान ने कारगिल में क्या किया, इससे तो सब वाकिफ हैं। पीठ पर छूरा खाने के बावजूद पाकिस्तान के लिए बस जारी रही, देश की जनता तो तभी पाकिस्तान को बे’बस’ और बेदम करना चाहती थी लेकिन सरकार ने घुसपैठियों को भगाकर अपनी पीठ थपथपा ली। इस बस पर ब्रेक तब लगा जब 13 दिसंबर 2001 को हमारे लोकतंत्र पर जोरदार तमाचा मारा गया और लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद भवन पर आतंकवादी हमला हुआ। अब आर-पार की लड़ाई का वक्त आ गया है, हम इसे नहीं भूलेंगे, पाकिस्तान को सबक सिखाना ही होगा और न जाने क्या-क्या भड़काऊ बातें करने के बाद सरकार का दम फूल गया और शांत बैठ गई।

2008 में मुंबई हमले और अब पाकिस्तानी में अमेरिका की कार्रवाई के बाद बीजेपी पाकिस्तान का खेल खत्म कर देना चाहती है। भले ही अपने राज में कारगिल जैसी लड़ाई और संसद पर हमले के वक्त वे कुछ नहीं कर पाए हों। सरकार चुप बैठी है और उस समय की सरकार भी चुप थी तो इसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो जरूर होगा। जैसा कि पूर्व एयर मार्शल कपिल काक का कहना है ‘ऐसी कार्रवाई सिर्फ ताकत का दिखावा करने के लिए नहीं होनी चाहिए। जब तक हम उद्देश्य चिन्हित नहीं करते, हमें ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए।’ बात सिर्फ उद्देश्य चिन्हित करने तक ही होती तो बात और थी, यहां तो आपको उसके परिणामों के बारे में सोचना पड़ेगा। अगर आज आप पाकिस्तान पर हमला करते हैं तो आपको इस इस बात के लिए तो तैयार रहना ही पड़ेगा कि वो चुप नहीं बैठेगा। पाकिस्तान एक परमाणु सम्पन्न देश है और हमारे दूसरी तरफ ताक पर बैठा चीन हमारे इस परंपरागत दुश्मन का अच्छा इस्तेमाल करना भी जानता है।

ऐसी कोई भी कार्रवाई हुई तो पाकिस्तान के निशाने पर सबसे पहले दिल्ली, मुंबई, बैंगलूरु, अमृतसर, चंडीगढ़ और ऐसे ही बड़े-बड़े शहर होंगे। अगर आप इन शहरों की कीमत पर पाकिस्तान में छुपे बैठे आतंकवादियों की जड़ उखाड़ना चाहें तो आप उस पर हमला कर सकते हैं, लेकिन इतनी बड़ी कीमत चुकाने को कोई भी सरकार तैयार नहीं हो सकती। रही बात अमेरिका की कार्रवाई की तो, पहली बात ताकत के मामले में वो हमसे कहीं आगे है और दूसरी बात यह कि उसने पाकिस्तान को तमाचा जरूर मारा है लेकिन उससे पहले उसके मुंह में ढ़ेर सारा पैसा ठूंसा है, ताकि उसकी आवाज ही न निकल पाए। तीसरा बड़ा फायदा अमेरिका को यह है कि वह पाकिस्तान का पड़ोसी देश नहीं है। हजारों मील की दूरी पर बसे अमेरिका तक पाकिस्तान की कोई मिसाइल पहुंचे इससे पहले वह पाकिस्तान को 12वीं सदी में पहुंचा देगा। हमारे साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि हम दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन तो बना सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं चुन सकते। उसकी अदनी सी मिसाइल, मिसाइल छोड़ो छर्रे वाली बंदूक का छर्रा भी भारत पहुंच सकता है इसलिए पाकिस्तान पर हमला करने का विचार तब तक सही नहीं लगता जब तक आप अपने कुछ चमचमाते हुए हिस्सों को खोने को तैयार न हों।

Saturday, April 16, 2011

तानाशाही शौक वाले पीएम मनमोहन

हमारे देश के प्रधानमंत्री कौन हैं? इस सवाल का जवाब तो बच्चा बच्चा दे सकता है। जी हां अभी तक तो डॉ. मनमोहन सिंह ही हैं, आगे का रब जाने। प्रधानमंत्री यानि देश के सभी हाई प्रोफाइल मंत्रियों का आका। यानि देश को अपनी मुट्ठी में रखने और देश को चलाने वाले मंत्रियों का सरदार। ये अलग बात है कि वे वैसे भी सरदार हैं लेकिन ये सरदार कभी कभी ही खुश होता है। खैर मैं ये ब्लॉग मनमोहन सिंह के महिमामंडन के लिए तो लिख नहीं रहा हूं। बल्कि मैं तो उनके चरित्र के कुछ ऐसे गुणों की तरफ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिससे पता चलता है कि उनमें तानाशाही वाले सारे गुण हैं। किसी भी तानाशाह के बारे में सबसे पहली बात कौन सी आती है यही न कि वो अपनी ही जनता का दमन करता है। आज जिस कदर महंगाई है और वे अपने ही मंत्रियों पर इसे काबू में करने के लिए दबाव नहीं बना पा रहे हैं उस नजरिए से तो वे जनता का दमन ही कर रहे हैं।

एक तानाशाह लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रखता लिहाजा वह न तो चुनाव चाहता है और न ही ऐसा होने देता है। हमारे प्रधानमंत्री की भी सबसे बड़ी खासियत यही है जनाब! उन्हें या तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं है या वे लोकतंत्रिक प्रक्रिया से डरते हैं। वैसे मुझे लगता है कि उन्हें इसमें विश्वास ही नहीं है अगर डरते तो दो बार प्रधानमंत्री थोड़े ही बनते। असल बात तो यह है कि उन्होंने अपनी जिन्दगी में आज तक सिर्फ एक बार 1998 के लोकसभा चुनाव में चुनाव लड़ा और हार गए। उसके बाद उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा उसके बावजूद वे दो बार से देश के प्रधानमंत्री हैं और वित्त मंत्री रह चुके हैं। एक तानाशाह भी तो चुनाव में नहीं जाना चाहता, क्योंकि वह जानता है कि चुनाव में जाएगा तो हार जाएगा, ऐसा ही हाल हमारे पीएम साहब का है। भई वे तानाशाह न सही लेकिन वैसे शौक तो रख ही सकते हैं।

ताजा वाकिया असम विधानसभा चुनाव का है। वे आसाम से ही राज्यसभा के सदस्य हैं और वहीं पर उनका वोट है। वे चाहते तो डाक से भी अपना वोट डाल सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। फिर वही बात जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि पीएम साहब को चुनाव प्रक्रिया में विश्वास नहीं है और उन्हें तानाशाही वाले शौक भी हैं।

Monday, April 4, 2011

'खुशी' मिली इतनी के आंचल में न समाए

आज मेरी जिन्दगी में फिर एक लड़की है
न पूछो मुझे आज कितनी 'खुशी' है
'खुशी' का मेरे कोई ठिकाना नहीं
छुपाने का भी कोई बहाना नहीं।

जिन्दगी में एक नई रोशनी ने दस्तक दी है,
बसन्त में मेरे जीवन में एक नव संचार हुआ है,
अब तो इसी 'खुशी' से मेरा सारा संसार हुआ है।

दरख्तों पर नए कोपलों सी
शहर में बढ़ते झोपड़ों सी
मेरी 'खुशी' का कोई ठिकाना नहीं।

कोयल की कूक सी
सुबह की धूप सी
चांद की रूप सी
मेरी जिन्दगी की एक-अनेक और अनेकों खुशी मेरी बेटी 'खुशी'।


खुशी मिली इतनी के आंचल में न समाए,
पलक बंद कर लूं कहीं छलक ही न जाए।

Thursday, March 17, 2011

मनमोहन सिंह एक ईमानदार प्रधानमंत्री... जोक पुराना हो गया सर

मनमोहन सिंह एक ईमानदार प्रधानमंत्री हैं और उनकी पाक साफ छवि पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। नहीं नहीं ये मजाक था, मारना मत। अब सच में ऐसे ही हालात हो गए हैं कि आप कहें मनमोहन सिंह ईमानदार है और आपको कोई धोबी पछाड़ दे दे। ऐसे हालात से बचना है तो रोज अखबार पढ़ो, टीवी पर खबरें देखो और सुनो, वरना आपकी इस तरह की हरकत आप पर भारी पड़ सकती है। खैर मैंने एक बार अपने आप को ऐसे हालात में मजाक कर रहा था करके बचा लिया, लेकिन उसके बदले मार न सही एक नसीहत जरूर मिली कि भई कोई नया जोक सुनाओ ये तो पुराना हो गया है। वैसे 2जी स्पेक्ट्रम, सीवीसी नियुक्ति, कॉमनवेल्थ गेम्स, आदर्श सोसाइटी घोटाला और इस तरह के न जाने कितने घोटालों के वक्त गहरी नींद में सोए रहे प्रधानमंत्री ने एक प्रेस वार्ता में अपनी गलती मान ली और कहा कि मैं दोषी तो हूं लेकिन उतना भी नहीं जितना प्रचारित किया जा रहा है। प्रधानमंत्री जी, आप बहुत बड़े ईमानदार और पाक साफ छवि वाले इंसान हैं, आप पर कोई उंगली नहीं उठा सकता लेकिन आज तो आपकी तरफ चारों ओर से आम जनता के सिर और हाथ उठ रहे हैं।

अब तो हद हो गई है, सीवीसी और 2जी स्पेक्ट्रम मामले ने प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर जो दाग लगाया था उसे विकीलीक्स के ताजा खुलासे ने और भी गाढ़ा दाग बना दिया है। शायद हमारे पीएम साहब को सर्फ का वो विज्ञापन कुछ ज्यादा ही भा गया है, जिसमें कहा गया है कि 'दाग अच्छे हैं'। मनमोहन जी आप ईमानदार हो सकते हैं लेकिन आपकी ईमानदारी पर बट्टा लगाने वाले इन दागों का क्या? एक महापुरुष ने कहा था कि गुनाह सहना भी एक गुनाह है। आज के एक शिक्षाविद् की माने तो 'अगर आपके पड़ोस में किसी पर अत्याचार हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगल नंबर आपका है'। श्रीमान प्रधानमंत्री महोदय आपकी नाक के नीचे 2जी घोटाला हो गया और आप यह कह कर बचने की कोशिश करते नजर आए कि राजा ने आपकी बात नहीं सुनी। आपकी इस बात से तो ऐसा ही लगता है जैसे राजा सच में उस समय राजा बन गए थे और आपके उनके दरबार में जी हुजूरी करने वाले दरबान। सीवीसी मामले में भी आपने पामोलीन मामले के बारे में जानकारी नहीं होने की बात कही, जिससे साफ लगता है कि आप ईमानदार तो पता नहीं लेकिन झूठ बोलने में बड़े माहिर हैं। लेकिन मुसीबत यह है कि आपका झूठ पकड़ा जाता है।

अब 2008 में सत्ता बचाने के लिए जिस तरह से 'नोट फॉर वोट' हुआ था, उस समय आप लोगों ने इसे लोकतंत्र के लिए शर्म कहकर संसद में नोट लहराने वाले सांसदों को ही गुनहगार साबित कर दिया था लेकिन विकीलीक्स ने आपकी पोल खोल दी। अब ये कैसी ईमानदारी है श्रीमान कि सरकार बचाने के लिए पैसे देकर एमपी खरीदे और फिर भी ईमानदारी का मेरा रंग दे बसंती चोला। अब मुझे आपकी ईमानदारी पर कोई शक नहीं है, आप जैसी महापुरुष रूपी बिल्लियां इस धरती पर बहुत कम ही पैदा होते हैं जो सौ चूहे खाकर भी हज जाए बिना हज का मजा लेती रहती हैं और फरिस्ते कहलाती हैं वरना तो सौ चूहे खाकर बिल्ली हज जाने की सोच ही लेती है। आप ऐसा भी नहीं सोचते तो आपमें कोई बात तो होगी, मजे लो इस सत्ता का, पता नहीं कल हो न हो। और हां अभी तो तीन साल और हैं आपकी सरकार के अभी गुंजाइश है आपको ऐसी ही कुछ और ईमानदारियां दिखाने का जिससे हमारी जेबें तो कट जाएं लेकिन आप चोरी करके भी रॉबिनहुड कहलाएं। धन्यवाद

Tuesday, March 8, 2011

अरुणा को इतनी बड़ी सजा क्‍यों?

इच्छामृत्यु की 'गुजारिश' खारिज ये हैडिंग लगाकर हमने भी अपनी पीठ थपथपाई की 'भई वाह! जबरदस्‍त हैडिंग लग गई है, गुजारिश फिल्‍म का नाम भी आ गया जिसमें इच्‍छा मृत्‍यु का विषय है।' लेकिन अरुणा को न्‍याय कब मिलेगा और अरुणा को इतनी बड़ी सजा क्‍यों?

जी हां, मेरा ये सवाल हर उस व्‍यक्ति से है जो अपने आप को बुद्धिमान मानता है और कैपिटल पनिशनमेंट (सजा ए मौत) का विरोध करता है। ये सवाल देश के उन तथाकथित विचारवान (थिंकटैंक) लोगों के लिए भी है जो टीवी स्‍टूडियो में बैठकर या रैलियां निकालकर मौत की सजा का विरोध करते हैं। वैसे मौत की सजा का विरोधी मैं खुद भी हूं लेकिन मैं अपने आप को उन तथाकथित विचारवान लोगों से अलग मानता हूं, ऐसा क्‍यों वो आप आगे समझ जाएंगे। पहले अरुणा शानबाग की बात कर ली जाए, जो पिछले 37 सालों से सजा भुगत रही हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आगे भी वह सजा की हकदार हैं।

अरुणा के केस पर एक नजर-

सुप्रीम कोर्ट ने अब 60 साल की हो चुकी पूर्व नर्स की इच्छामृत्यु की याचिका को खारिज कर दिया। अरुणा के साथ मुंबई के केईएम अस्पताल में 27 नवंबर 1973 को अप्राकृतिक बलात्‍कार (रेप) हुआ था। अरुणा उस समय इसी अस्‍पताल में नर्स के रूप में काम करती थी। सफाईकर्मी ने बलात्‍कार के दौरान अरुणा की गर्दन में कुत्ते को बांधने वाली चेन लपेटकर इसे झटक दिया, जिससे वह कोमा में चली गई। तब से अब तक 37 साल का लंबा समय गुजर चुका है लेकिन अरुणा की बेहोशी नहीं टूटी है।

उस दरिंदे ने अरुणा से बलात्कार करने की कोशिश की, लेकिन यह जानने के बाद कि वह मासिक धर्म से है, उसने अप्राकृतिक दुष्कर्म किया। अरुणा विरोध न कर पाए, इसलिए उसकी गर्दन से चेन लपेटकर उसे झटक दिया। जघन्य अपराध को अंजाम देने के बाद वह मौके से फरार हो गया। बाद में पकड़ा भी गया तो 7 साल की कैद के बाद वह आसानी से छूट गया और अरुणा आज भी सजा भुगत रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने अरुणा को एक्टिव यूथेनेसिया (ऐसी इच्छामत्यु जिसमें रोगी का जीवन कोई इंजेक्शन इत्यादि देकर खत्म किया जाए) की इजाजत तो नहीं दी। फिर भी असाधारण परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेसिया (ऐसी इच्छामत्यु जब रोगी का इलाज बंद कर दिया जाए या उसे जीवनरक्षक उपकरणों से हटा लिया जाए) की इजाजत देने की बात कही।

वापस अपने लेख पर आते हैं-

जिस परोक्ष मृत्‍यु की बात कोर्ट ने की है उसके अनुसार तो अरुण भूख से, सांस न मिलने से और ईलाज की कमी से तड़प-तड़पकर मर जाएंगी। इससे तो बेहतर यही होगा कि उन्‍हें मौत (जहर) का इंजेक्‍शन देकर आसानी से मरने दिया जाए।

एक सवाल- अरुणा को सजा क्‍यों?
अरुणा पिछले 37 सालों से सजा भुगत रही है, जबकि उनकी कोई गलती भी नहीं थी। दूसरी तरफ वो दरिंदा जिसने अरुणा को इस हालत में पहुंचाया वह सिर्फ 7 साल की सजा काटकर आराम से जेल से बाहर आ गया। जैसा कि मैंने पहले कहा था मैं भी सजा ए मौत के खिलाफ हूं, ये किसी दया भाव से नहीं बल्कि मैं ऐसे दरिंदों के लिए इससे भी कड़ी सजा चाहता हूं इसलिए। कोई गलती नहीं होने के बावजूद अरुणा पिछले लगभग 4 दशकों से ये सजा भुगत रही हैं और उनकी तरफ से मौत की भीख मांगी जा रही है। मेरा सवाल कोर्ट और उन तथाकथित विचारवान लोगों से यह है कि उस दरिंदे को ऐसी सजा क्‍यों न मिले कि वह मौत की भीख मांगे और उसे वह भी नसीब न हो। सजा बर्बर जरूर होगी लेकिन गुनहगारों के लिए बिल्‍कुल सटीक, जैसे बलात्‍कार करने वाले का लिंग, दोनों पैर व एक हाथ काटकर छोड़ दिया जाए। मुझसे कई लोग सहमत तो नहीं होंगे लेकिन इस सजा से गुनहगारों के दिलों में खौप बैठ जाएगा। असली सजा तो यही होगी भले ही कोई माने या न माने।

आप ऐसे गुनहगारों के लिए क्‍या सजा चाहते हैं और क्‍या वह सही होगी, अरुणा को अपना करीबी मानकर कृपया अपनी राय जरूर दें।

असल में बीमार कौन है? उत्सव या हम

उत्सव शर्मा, इस नाम से अब हर कोई वाकिफ है। पहले 8 फरवरी 2010 को रुचिका गिरहोत्रा को प्रताड़ित कर उसे आत्महत्या करने पर मजबूर करने वाले हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ पर इनका गुस्सा फूटा। और फिर एक साल शांत रहने के बाद 25 जनवरी 2011 को इन्होंने राजेश तलवार पर हमला कर दिया। जनाब आरुषि-हेमराज हत्याकांड में सीबीआई द्वारा आरुषि के पिता राजेश तलवार पर शक जाहिर करने के बावजूद हो रही देरी से नाराज थे। पहली घटना चंडीगढ़ की सेशन कोर्ट में हुई, जबकि दूसरी घटना गाजियाबाद में सीबीआई के स्पेशल कोर्ट में। उत्सव के पिता बनारस के बीएचयू में प्रोफेसर हैं और उसने अहमदाबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन (एनआइडी) से एनिमेशन और फिल्म डिजाइनिंग में एमए किया है। उत्सव का नाता अब चार शहरों से है लेकिन इन दो घटनाओं से न तो पहले और न बाद में उसने किसी भी निर्दोष पर हमला किया।

राजेश तलवार पर हमले के बाद उत्सव के वकील, पुलिस, माता-पिता और डॉक्टर सभी उसे मानसिक रोगी बता रहे हैं। माफ कीजिएगा, मेरी राय इस मामले में थोड़ा नहीं बहुत अलग है। खैर मेरी राय बाद में, पहले कुछ और चीजें जान ली जाएं। उत्सव को बाईपोलर डिसआर्डर (मैनिक डिप्रेशन) नाम की बीमारी से ग्रस्त बताया जा रहा है। उत्सव के वकील के अनुसार, इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति अक्सर उत्तेजित व तनावग्रस्त हो जाते हैं। उसे दिल्ली के एम्स या आगरा के अस्पताल में भर्ती कर उसका इलाज किए जाने की बात कोर्ट भी मान गई है। राजेश तलवार पर हमले के बाद उत्सव ने कहा था कि उसने तलवार को चोट पहुंचाने के लिए हमला किया था, न कि उसे मारने के लिए। इसके अलावा उसने यह भी कहा कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों से वह बेहद परेशान था, इसलिए उसने उन लोगों को सबक सिखाने के लिए यह रास्ता चुना। रुचिका मामले में राठौड़ पर हमला करने से पहले वह इस केस को लेकर काफी परेशान था और इस पर एक फिल्म बनाना चाहता था।

जैसा कि मैंने पहले कहा, उत्सव ने इन दो हमलों से न तो पहले और न बाद में किसी निर्दोष व्यक्ति पर हमला किया। ऐसे में मेरे दिमाग में एक सवाल कौंध रहा है कि असल में बीमार कौन है, और कितना है और फिर उसका इलाज क्या है? क्योंकि उत्सव ने अब तक उन्हीं लोगों पर हमला किया है, जो व्यवस्था की कमी या न्याय की सुस्त चाल के चलते खुले आम घूम रहे हैं। उत्सव को देखकर एक फिल्म याद आती है ‘अपरिचित’। मल्टी पर्सनेलिटी डिस्ऑडर पर बनी इस फिल्म में हीरो जब भी जुर्म होते देखता है, वह अपरिचित बनकर अपराधी को गरुड़ पुराण के अनुसार सजा देता है। उसकी प्रेमिका उसे घास नहीं डालती तो वह रेमो बन जाता है और आम जिन्दगी में वह डरा-सहमा सा रामानुजम उर्फ अम्बी है। उत्सव को बाईपोलर डिसआर्डर नाम की बीमारी से ग्रस्त बताया जाता है। असल में बीमार हमारी व्यवस्था है, जो अपराध रोकने में लगातार नाकामयाब हो रही है। बीमारी हमारी न्याय व्यवस्था व पुलिस प्रणाली में फैल चुकी है, जो अपराधियों को उनके अंजाम तक नहीं पहुंचा पा रही है। ऐसे में एक उत्सव क्या हजारों उत्सव पैदा हो सकते हैं, जो एक दिन अपने हाथों में हथियार थामकर अपराधियों को अपने अनुसार सजा देंगे। वैसे भी हमारे समाज पर बॉलीवुड की खासी छाप है, बॉलीवुड फिल्मों में जब अपराधी न्याय व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हैं और प्रशासन को अपनी जेब में रखते हैं तो एक हीरो सामने आकर अपराधियों को चुन-चुन कर मारता है। राठौड़ पर हमले के बाद एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार की वेबसाइट पर Utsav Sharma ban gaya hero? हेडिंग से खबर लगी। मैं उत्सव को हीरो तो नहीं मानता लेकिन मानता हूं कि हम सब कायरों और मानसिक रोगियों के बीच वही एक दिलेर है जो अपने दिल और दिमाग की बात मानता है और अपराधियों के लिए खौफ बनने की राह पर निकल पड़ता है। जितनी तत्परता से उत्सव को गिरफ्तार किया गया या जितनी तेजी से उत्सव ने अपराधियों के खिलाफ अपना फैसला सुनाया है, उतनी ही तेजी से अगर हमारी पुलिस, न्याय-व्यवस्था और हम सब अपराध व अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करें तो इस समाज से अपराध का नामोनिशान मिट जाएगा और अपराधी अपराध करने से पहले सौ बार अपने अंजाम के बारे में सोचेंगे।
उत्सव के बारे में कुछ जानकारी
30 वर्षीय उत्सव वाराणसी का रहने वाला है और उसने अहमदाबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइनिंग (एनआईडी) से फिल्म प्रोडक्शन की पढ़ाई की है।
उत्सव तलवार से पहले रुचिका गिरहोत्रा मामले के दोषी हरियाणा के पूर्व डीजीपी एस.पी.एस. राठौड़ पर भी चंडीगढ़ की एक अदालत परिसर में हमला कर चुका है। फरवरी 2010 में उत्सव ने राठौड़ के चेहरे पर चाकू से तीन बार हमला किया था।
चंडीगढ़ स्थित जाट धर्मशाला के मुताबिक उत्सव राठौड़ पर हमले से पहले वहां 40 रुपए प्रतिदिन के किराए पर कुछ दिनों तक रुका था। यह धर्मशाला राठौड़ के घर के करीब ही है।
करीबी लोगों के अनुसार उत्सव रुचिका मामले को लेकर बहुत परेशान था और वह इस विषय पर एक फिल्म बनाना चाहता था।
करीबी लोगों के अनुसार महिलाओं के विरुद्ध होने वाले किसी भी तरह के अपराध पर वह बहुत संवेदनशील हो जाता था और किसी न किसी रूप में उस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करता था।

आप सोच रहे होंगे अब इतनी देर में क्‍यों तो आपको बता दूं लाइवहिन्‍दुस्‍तान के ब्‍लॉग पर उस समय लिखा था लेकिन अपने व्‍यक्तिगत ब्‍लॉग पर पोस्‍ट को टांगने का वक्‍त अब ही मिला है।

यमुना का चीरहरण, लंबा हुआ कृष्ण का इंतजार

आज कई दिनों के बाद लगा कि एक बार फिर से किसी ने यमुना का चीर हरण कर दिया है। जी जनाब! आपने बिल्कुल सही पढ़ा यमुना का चीर हरण। वही यमुना जिसने पिछले दिनों कई लोगों को बेघर कर दिया। अजी वही यमुना जिसने बिना इजाजत के पिछले दिनों दिल्ली में कई लोगों के घरों में घुसपैठ कर दी थी। रौब तो देखिए, बाहर से ताला लगा रहा लेकिन ये फिर भी अंदर दाखिल हो गई। आज यमुना पुल से आईटीओ होते हुए ऑफिस आ रहा था, तो यह हादसा देखा। हादसा! अरे भई ऊपर बता तो दिया कि यमुना का चीर हरण हो गया है। पिछले दिनों जिस तरह से यमुना पानी से लबालब भरी हुई थी उसे देखकर मन हिचकोले खा रहा था। यह ठीक वैसा ही था जैसे किसी महिला ने घूंघट ओढ़ रखा हो और आप उसके दीदार को तरस रहे हों।

आज देखा तो यमुना कई जगहों से नंगी नजर आई। फिर सोचने लगा आखिर इसका चीर हरण फिर से कैसे हो गया। कुछ ही दिन पहले की तो बात है, जब मेघ रूपी श्रीकृष्ण ने इसकी लाज बचाने के लिए अपने सारे घोड़े दौड़ा दिए थे। कृष्ण ने एक बार फिर से यमुना का साथ छोड़ दिया और उसका चीर हरण हो गया। अब देखो कैसे-कैसे दुर्योधन इसको फिर से गंदा करते हैं। कोई इसमें सीवर मिला रहा है तो कोई पूजा के फूल डाल रहा है। कुछ लोग खुद के पाप धोने में इसकी पतली सी धोती को मैला कर रहे हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स के समय विदेशी लोग भी आए यमुना के चीर हरण के नजारे को देखने के लिए। लेकिन उस समय कृष्ण ने काफी हद तक यमुना की लाज बचाए रखी। लेकिन अब तो उसका चीर हरण हो चुका है। आखिर कब आएगा यमुना का कृष्ण जो उसे इस चीर हरण से हमेशा के लिए निजात दिलाएगा?

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गेम्स विलेज को लेकर एक और आइडिया है सरजी!


‘खेल खतम पैसा हजम!’ अरे नहीं, पैसा ऐसे कैसे हजम हो जाएगा? अभी तो मामला तन गया है और हाईकोर्ट तक बात पहुंच गई है जनाब। वैसे हम इस झमेले में नहीं फंसने वाले, हम तो बात करेंगे कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज के बारे में। भई गेम्स तो खत्म हो लिए, इस बार हमारे तीर निशाने पर लगे और गोलियां भी नहीं चूकी। इसलिए ऑस्ट्रेलिया को छोड़ बाकी सबको पटखनी देकर हम अंक तालिका में दूसरे नंबर पर पहुंच गए। अब गेम्स विलेज का क्या होगा, सुना है डीडीए उसे जल्द ही अपने कब्जे में लेकर खरीदारों को न्यौता देने वाला है। सुना है लगभग 1 करोड़ रुपए से एक फ्लैट की कीमत शुरू होती है, और जिसकी अंटी में इतना पैसा हो वह ले उड़े। जरा ठहरिए! हमारे पास एक सुझाव है इस गेम्स विलेज के इस्तेमाल को लेकर।

नेताजी! अरे भई संसद में बैठने वाले अपने सांसद महोदय, उन्हें क्यों न इन फ्लैटों में बसा दिया जाए। सांसद महोदय को वर्ल्ड क्लास सुविधा मिल जाएगी और डीडीए की फ्लैट बेचने की कवायद का झंझट भी खत्म हो जाएगी। वैसे भी हमारे सांसद महोदय सेंट्रल दिल्ली के अलिशान बंगलों में तन्हा रहकर बोर हो चुके हैं, यहां सब साथ-साथ रहेंगे, खेलेंगे, कुदेंगे और ऐश करेंगे और क्या!

इसका एक फायदा यह भी है कि अलग-अलग बंगलों में सुरक्षा देने में देश का ढ़ेर सारा पैसा जो खर्च होता है, वह भी कुछ बच जाएगा। भई देखिए, हमें तो यह आइडिया बिल्कुल ‘व्हाट एन आइडिया सरजी’ वाला आइडिया लगा। बाकी डीडीए व सांसद महोदयों की मर्जी, हमने तो अपनी तरफ से सिफारिश कर दी है। बाकी रही बात जिन बंगलों में अभी हमारे नेताजी लोग रह रहे हैं उनके इस्तेमाल की तो, उनका भी कुछ न कुछ सोच ही लिया जाएगा।

आइडिया तो गेम्स विलेज को छात्रों के लिए हॉस्टल की तरह इस्तेमाल का भी बुरा नहीं है। सुना है ऐसा ही आयोजन समिति ने भी पहले सोचा था। सुना तो यह भी है कि उन्होंने यह भी सोचा था कि इसे हॉस्टल की तरह इस्तेमाल करेंगे और आगे जब भी इस तरह का कोई आयोजन होगा तो फिर गेम्स विलेज का इस्तेमाल कर लेंगे।

बुढ़े नेता या फिर हमारे युवा छात्र बंधु, जो भी हमारे इस आइडिया को भुनाने की कोशिश करेगा, हम उसका पूरा साथ देंगे। अगर युद्ध दो तरफा हो तो मजा ही आ जाए, फिर देखेंगे कि युवा शक्ति जीतती है या नेताजी बाजी मार ले जाते हैं। हम तो ईशारा दे चुके हैं, अब यह आइडिया सही जगह तक पहुंच जाए और कहीं से एक चिंगारी जल उठे तो मजा आ जाए।

आप सोच रहे होंगे अब इतनी देर में क्‍यों तो आपको बता दूं लाइवहिन्‍दुस्‍तान के ब्‍लॉग पर उस समय लिखा था लेकिन अपने व्‍यक्तिगत ब्‍लॉग पर पोस्‍ट को टांगने का वक्‍त अब ही मिला है।